मैं, अजमेर....20
‘मैं अजमेर
...’ लेख श्रृंखला की शुरूआत
गत वर्ष फरवरी
में की थी।
बीते एक साल
में आपका बहुत
प्यार, सम्मान और स्नेह
मिला। मुझे खुशी
है कि आपको
यह श्रृंखला बहुत
पसंद आई। हमने
इसमें शहर से
जुड़ी अनेक चीजों
से रूबरू कराया
और ढेरों जानकारियॉं
दी। महोदय आप
पाठकगणों का प्यार
ही हमारा संबल
है। हम चाहते
है कि इस
श्रृंखला में आप
भी भागीदार बने।
यदि आपके पास
अजमेर से जुड़ी
कोई महत्वपूर्ण जानकारी,
तथ्य, फोटो आदि
है तो कृप्या
हमें शेयर करें।
सुझाव दें। हम
उसे उचित स्थान
देने का प्रयास
करेंगे- ...संपादक
---------
मेरे मूक परिंदों
की आवाज
मूक
परिंदों की बारी
है। आनासागर, फॉय
सागर, पुष्कर जैसी
अनेक झीलें और
ताल-तलैया है,
जहॉं ना सिर्फ
स्वदेशी परिंदे ढेरा डाले
रहते है, अपितु
सात समंदर पार
के परिंदे भी
यहॉं आकर विचरण,
प्रवास, प्रजनन, किलोल और
अटखेलियॉं करते है।
इनके कलरव से
मेरी आनासागर झील
तो खिलखिला उठती
है। यहॉं भ्रमण
को आऐ हर
शख्स का चेहरा
मुस्कुरा उठता है।
इन्हें निहारने, छूने और
अपने कैमरे में
कैद करने को
हर किसी का
जी ललचाता है।
कह सकता हूं
कि इन परिंदों
से झील का
किनारा क्या हर
दिल गुलजार हो
उठता है।
सर्दियों के मौसम
में तो आनासागर
झील के किनारे
परिंदों की बहार
सी रहती थी,
किंतु बीते सालों
में लोगों की
चहलकदमी क्या बढ़ी,
पंरिदों की संख्या
में भारी कमी
आई है। अब
ना वो झूंड
देखने को मिल
रहे है और
ना ही वो
शांत प्राकृतिक वातावरण
मिल रहा है।
झील का प्राकृतिक
किनारा, शांत वातावरण,
वेटलैंड, अनुकूल पर्यावरण आदि
सब खत्म सा
हो रहा है।
ज्यों ज्यों आदमी
अपने पैर फैला
रहा है, परिंदे
स्वयं सिमटते जा
रहे है। प्रवासी
पक्षियों के आने
का सिलसिला भी
टूटा है। विविधताओं
के साथ साथ
इनकी संख्या में
भारी कमी आ
रही है। ऐसा
भी नहीं है
कि प्रशासन इनसे
बेखबर है। इन
बिंदूओं पर वहॉं
भी जब तब
चर्चा होती रही
है, पर कभी
कोई ठोस और
मोटा कदम नहीं
उठता है।
मानव जीव
प्रतिपालक महेन्द्र विक्रम सिंह
बताते है कि
आनासागर झील में
यूं तो बहुत
से पक्षी आते
है, किंतु 40 के
करीब ऐसे पक्षी
है, जिन्हें आमजन
पहचान सकते है।
इन पक्षियों में
स्पून बिल, ब्राउन
हैडेड गल, फ्लेमिंगोज,
लिटिल कॉर्मोरेंट, कॉमन
मूरहैन, ग्रे-हेरॉन,
पैलिकन, ब्लैक काइट, स्पॉट
बिल डक (गुगरल
बतख), कोम डक
(नकटा बतख), लेसर
विसलिंग टील (छोटी
सिलही बतख), कूट
आदि प्रमुख है।
फ्लेमिंगोज
से होता है किनारा
गुजलार -
फ्लेमिंगोज यानी राजहंस
का आना मेरे
लिए एक सुखद
अनुभूति था, किंतु
बीते 3-4 सालों में इनकी
संख्या नग्णय हो गई
है। ये पक्षी
सर्दियों में चाईना,
मंगोलिया, साईबेरिया, कच्छ के
रण व बर्फिले
प्रदेशों से उड़ान
भर कर आते
थे। आनासागर झील
इनका प्रमुख पड़ाव
रहता था, किंतु
वेटलैंड और अन्य
अनुकूलताऐं खत्म होने
से इन्होंने अपना
स्थान बदल लिया
है। ये सुराईदार
गर्दन लिए सफेद
रंग के होते
है, किंतु नियमित
रूप से रेड
ऐेल्गी पर फीडिंग
करते रहने से
इनके पंख, चोंच
और पैर ऑरेंज
कलर के हो
जाते है। इन
मेहमान परिंदों से झील
चहक उठती थी,
किंतु अब सूनी
सूनी सी है।
अजमेर विकास प्राधिकरण
ने लकड़ी के
मचान आदि बनाकर
ऐसे पक्षियों को
लुभाने का प्रयास
जरूर किया था,
किंतु यह एक
नौसिखिया प्रयास भर था।
वैटलैंड
भूमि -
आनासागर झील वर्तमान
में वर्ष 2012 से
लबालब है। चारों
तरफ की कॉलोनियॉं
भी जलमग्न है।
इसी के साथ
इस झील के
किनारों पर बरबस
डवलप होने वाली
वेटलैंण्ड भी गायब
हो गई है।
वैटलेंड - यानी दलदली
भूमि... नम भूमि
जो कि पक्षियों
के प्रवास एवं
विचरण के लिए
उपयुक्त मानी जाती
है। वैटलैंड नहीं
होने से प्रवासी
पक्षियों सहित अन्य
पक्षियों का आना
जाना कम हो
गया है। सच
तो यह है
कि आदमी मूक
परिंदों के बसेरे
छीन रहा है।
झील के
हालात यह है
कि - एक ओर
झील में बौटिंग
हो रही है
तो दूसरी ओर
स्वचालित मोटर युक्त
नावें उतर रखी
हैं। इसके अलावा
हाई स्पीड बौटिंग
भी है। धोबी
घाट, अवैध निर्माणर्,
इंटों का भट्टा,
विश्रामस्थली, चौपाटी, पाथ-वे
और खुला स्नानागार
भी यहॉं चालू
है। बीच में
टापू है। मछली
पकड़ने वाले अलग
सक्रिय है। दिन
भर इनकी चहलकदमी
और जाल चलता
रहता है। गंदे
नाले भी इसी
झील में जा
रहे है। कृष्ण
जन्माष्टमी और दीपावली
पर परिंदों के
घोंसलों की परवाह
किऐ बगैर पेड़ों
पर लाइटें लगाई
जाती है। बताते
है कि अजमेर
में 33 प्रतिशत जंगल के
बजाय यहॉं सिर्फ
सवा 7 प्रतिशत (613.09 वर्ग
किमी) जंगल क्षेत्र
है। ऐसे में
पक्षियों को आकर्षित
करना अब सिर्फ
ख्याली पुलाव हो सकता
है। बर्ड कंजरवेशन
सोसायटी के अध्यक्ष
महेन्द्र विक्रम सिंह बताते
है कि अजमेर
में करीब 215 बीघा
भूमि पर वैटलैंड
भूमि विकसित करने
की भी घोषणा
हुई थी, किंतु
वह योजना फ्लोर
पर नहीं आ
सकी।
मेरे नीति
नियंताओं को इस
विषय पर भी
सोचना चाहिऐ। आग्रह
करना चाहूंगा कि
मेरे यहॉं रहने
वाले मूक परिंदों
की भी सोचे।
उनके निवास स्थल
- यानी झील के
समग्र विकास की
सोचें। चारों तरफ की
सोचें। दूर की
सोचें। प्रकृति की सोचें।
अजमेर के हित
की सोचें.... अन्यथा
यह झील भी
पालबीचला और डिग्गी
तालाबों की तरह
सूनी सूनी और
दिखावटी बन जाऐगी।
मेरे यहॉं छोटे-मोटे अन्य
ताल-तलैया भी
है, जहॉं पर
परिंदों और वैटलैंड
भूमि की संभावनाऐं
है। अतः इस
पर भी विचार
होना चाहिऐ तथा
इको सेंसेटिव जोन
आदि बनने चाहिऐ।
बर्ड
कंजर्वेशन सोसायटी -
बर्ड कंजर्वेशन
सोसायटी (पंजीयन संख्या 165/2006-2007) और
एमडीएस यूनिवर्सिटी का पर्यावरण
विज्ञान विभाग जरूर इन
परिंदों की कभी
कभी सुद लेते
है। यूनिवर्सिटी के
इस विभाग के
प्रमुख डा. प्रवीण
माथुर व सोसायटी
के सदस्यों ने
यहॉं बीते दिनों
2 फरवरी को यूनिवर्सिटी
परिसर में ‘विश्व
वेटलैंड दिवस’ पर संगोष्ठी
का आयोजन किया।
इससे पूर्व गत
वर्ष 9-10 मई 2015 को ‘विश्व
प्रवासी पक्षी दिवस’ मनाया
गया। पक्षियों पर
आधारित फोटो प्रदर्शनी
भी लगाई। सोसायटी
के सदस्य महिने-दो-महिने
में ‘बर्ड्स वाचिंग’
पर भी जाते
है तथा समय
समय पर पक्षियों
के दाने-पानी
के लिए परिंडे
भी वितरित करते
है। बच्चों के
लिए अवेयरनेस प्रोग्राम
भी करते है।
डा. के.के.शर्मा बताते है
कि सोसायटी का
गठन वर्ष 2005 में
हुआ। वर्तमान में
इसके करीब 55 सदस्य
है। डॉ. के.के.शर्मा,
डॉ. प्रवीण माथुर,
अनिल कुमार जैन,
राजेश गर्ग, आलोक
शर्मा, अनिल लोढ़ा,
जिनेश सोगानी, डा.
रिपुन्जय सिंह, डा. विवेक
शर्मा आदि कई
लोग नियमित भाग
लेते है। निश्चय
ही यह सराहनीय
है, किंतु इन
पर अभी और
सक्रिय होना होगा
तथा कुछ ठोस
कदम उठाने होंगे।
मेयो कॉलेज परिसर
में मंदिर के
पीछे सज्जन तलाई
में भी कई
पक्षियों का जमावड़ा
रहता है। फूलसागर
नसीराबाद कैंट एरिया,
जवाजा तालाब, मकरेड़ा
तालाब पर भी
पक्षियों का आना-जाना रहता
है, किंतु इन्हें
बड़ी संख्या में
आकर्षित करने के
लिए कुछ और
प्रयास करने होंगे।
यहॉं
पाये जाने वाले कुछ
पक्षियों का विवरण -
ग्रेट
व्हाइट पेलिकन्स (हवासिल) -
यह पक्षी
कच्छ गुजरात, ईरान,
इराक, मध्य और
पश्चिम एशिया के देशों
से यहॉं आते
है, किंतु बीते
सालों में इनका
आगमन कम होने
लगा है। वर्ष
2014 में यह दिसम्बर
के मध्य में
ये आनासागर झील
पहुंचें थे किंतु
इस बार यह
जनवरी समाप्ति के
आस-पास पहुचे
है। इस बार
इनकी संख्या करीब
20 है। ब्यावर स्थित बिचड़ली
तालाब, किशनगढ़ के गुंदोलाव
तालाब और सावर
के पास स्थित
बनास नदी के
किनारे भी इनका
आगमन हुआ है।
ग्रे-हेरॉन (कबुद) -
इनकी पीठ
और पंखों का
रंग हल्का स्लेटी
व सिर-गर्दन
आदि सफेद होते
है। गर्दन अंग्रेजी
के एस की
तरह घुमावदार होती
है, जिन पर
काली चित्तीदार लकीर
होती है। इन
पक्षियों की टांगे
लम्बी होने के
कारण ये तैर
नहीं सकते। ये
प्रायः झील के
किनारे छिछले पानी में
खड़े हुऐ पाये
जाते है। ये
धैर्य के साथ
मौन मुद्रा में
गर्दन और चांेच
उठाऐ रहते है
तथा अपना भोजन
- मछली, मेंढक आदि दिखते
ही झपट पड़ते
है। अगस्त माह
के आस-पास
ये घोंसला बनाते
है। इन्हें ‘अंजन’
भी कहा जाता
है।
इग्रेट
(बगुला) -
बगुलों की कई
प्रजातियॉं है। गाय
बगुला (कैटल इग्रेट)
यहॉं बहुतायात में
आते हैं अगस्त
के आस-पास
झील के आउट
स्कर्ट में बगुलों
की बहार सी
रहती है। यह
समय उनके प्रजनन
काल का होता
है। इस दौरान
इनके पंखों में
भी निखार आ
जाता है। किलंगेनुमा
बगुलों की सुंदरता
देखते ही बनती
है। इनके सुंदर
पंखों के कारण
कुछ लोग इनका
शिकार भी करते
है। ये मेंढ़क,
जलकीट आदि का
शिकार करते है।
बगुलों की अन्य
प्रजातियॉं - करछिया बगुला (लिटिल
इग्रेट), मलंग बगुला
(लार्ज इग्रेट) और पटोखा
बगुला (मीडियन इग्रेट) है।
सफेद
बाज (व्हाइट आइबिस) -
सफेद बाज
यानी व्हाइट आइबिस
आनासागर, बारहदरी व बजरंगढ
के आस पास
पेड़ों पर घोंसले
बनाते है। बाज
का सिर और
गर्दन काले रंग
के होते है
तथा बिना बालों
के होते है।
इसका शरीर सफेद
एवं टांगे काली,
चोंच लंबी और
नीचे की ओर
टेढ़ी होती है।
ये नम भूमि
के किनारे दलदली
जमीन पर दिखाई
देते है। मेंढ़क
आदि खाद्य सामग्री
के लिए जमीन
भी खोदते रहते
है। ये नीले
रंग के दो
से चार अंडे
देते है। कभी
कभार इन अंडों
पर पीले रंग
की चित्तियॉं भी
पाई जाती है।
नोरंग
पक्षी -
आनासागर व फॉयसागर
की तलहटी में
जलीय पक्षी नोरंग
का अगस्त में
खासा जमावड़ा रहता
है। इन इलाकों
में इसे चहकते
हुये देखा जा
सकता है। यह
करीब बटेर के
बराबर होता हैं
रंग हरा, नीला,
गेहुंआ, काला व
ऊपर से सफेद
होता है। क्रीम
रंग का उदर
व पंखों पर
सफेद दाग होते
है। मान्यता है
कि नोरंग के
जोर से चहकने
से बादल छाए
रहने व बौछार
पड़ने की संभावना
बढ़ जाती है।
मई से अगस्त
के बीच मादा
नोरंग 4-6 अंडे देती
है, जो कि
चमकदार चाइना मिट्टी के
रंग के होते
है।
क्वाक
(नाइट हेरान) -
ये पक्षी
हमेशा समूह में
रहते है तथा
आनासागर बारादरी के ऊॅंचे
पेड़ों पर इनके
घोंसले दिखाई देते है।
दिन में प्रायः
यह घोंसलों में
रहते है तथा
शाम झील के
किनारे खाने की
खोज में पहुंच
जाते है। इनका
प्रिय भोजन केकड़े,
मछली, मंेढक व
जलीय कीड़े है।
इनके ऊपरी हिस्से
का रंग सलेटी
व नीचे सफेद
होता है। पीठ
व सिर काला
होता है। सिर
पर लंबी काली
व सफेद किलंगी
होती है। मादा
पक्षी अगस्त और
सितम्बर के बीच
चार से पॉंच
अंडे देती है।
यहॉं मैंने
जलीय पक्षियों की
बात ज्यादा की
है, परंतु, मेरे
यहॉं बहुत से
पक्षियों का आना
जाना रहता है।
सोंकलिया गांव के
निकट तो ‘बस्टर्ड’
परिवार के गोडावण
(राज्य पक्षी) व खरमोर
जैसे दुर्लभ पक्षी
भी पाये जाते
है। पर, बड़े
दुख के साथ
कहना पड़ता है
कि मेरे यहॉं
परिंदों और प्रकृति
की कदर नहीं
है। ना कभी
इनकी प्रशासन सुद
लेता है और
ना ही लोगों
में वो अहिंसा
का भाव है।
अर्थात् यहॉं चोरी
छिपे परिंदों का
शिकार भी होता
है। बीते दिनों
खानपुरा तालाब में तो
इन्हें एयरगन से शूट
किया जा रहा
था। वन विभाग
व पुलिस महकमा
भी इन सब
से अवगत है,
किंतु कानों पर
जूं रेंगे तब
ना!
काश! मेरे
मूक परिंदों की
यह आवाज प्रशासन
तक पहुचें और
कुछ ठोस कदम
उठे तो मेरा
यहॉं लिखना सार्थक
हो जाऐगा।
(अनिल
कुमार जैन)
‘अपना
घर’, 30-अ,
सर्वोदय
कॉलोनी, पुलिस लाइन,
अजमेर
(राज.) - 305001
Mobile - 09829215242
aniljaincbse@gmail.com